Friday, July 3, 2009

रिक्शेवाले भइया


स्कूल दूर होने की वज़ह से हमें कई सालों तक रिक्शे की रोज़ सवारी का मौका मिला.इन ८-९ वर्षों में हमने कई रिक्शे बदले....इस वज़ह से हमें सारे रिक्शेवाले भइया का नाम तो याद नही है,लेकिन २ रिक्शावाले भइया हमें हमेशा याद रहेंगे....एक अपने नाम की वजह से और एक अपने अनोखे रिक्शे की वज़ह से।

जिन्हें नाम की वज़ह से याद करती हूँ वो है.....दिसम्बर.पता नही उन्हें ऐसा नाम क्यूँ मिला?लेकिन उनके नाम की वज़ह से उन्हें भूलना मुश्किल था....कभी आने में देर हो जाती थी तो किसी भी दूसरे रिक्शेवाले भइया से उनकी जानकारी आसानी से मिल जाती थी।

जब हम रिक्शे में जाया करते थे....तो एक रिक्शे में कम से कम आठ से ग्यारह बच्चे तो होते ही थे....ज्यादा हो सकते थे पर कम नही.इससे में हर एक सीट पर बैठना चाहता था....जिसके लिए हर एक के लिए सीट और टब पर बैठने का दिन निर्धारित किया करते थे....इसके लिए कई बार लड़ाई भी होती थी.सीट के सामने की पटिया केवल लकड़ी की होने के कारण जल्दी से कोई उसपर बैठना पसंद नही करता था....यही लड़ाई का सबसे अहम् मुद्दा होता था।

इन सभी लडाइयों का सामना हर एक रिक्शे में करना पड़ा.... रिक्शेवाले तो रिक्शा बदलने से बदल जाते थे पर रिक्शे वही लगते और सीट के हक़ की लड़ाई भी वही रहती नए चेहरों के साथ......लेकिन जब एक बार हमने रिक्शा बदला तो हमें रिक्शेवाले भइया के साथ-साथ रिक्शा भी बदला-बदला लगा.अगर मैं इसे एक शान्तिप्रिय रिक्शा कहूं तो शायद सही रहेगा.....यहाँ कभी भी सीट के लिए कोई लड़ाई नही होती थी.....कोई भी कहीं भी बैठने को तैयार रहता.कारण ये था कि ये शहर का एकमात्र ऐसा रिक्शा था,जिसमे सीट और पटिया में कोई भेद नही किया गया था....पूरा रिक्शा गद्देदार था.....ये रिक्शा था दुकालू भइया का.इसे उन्होंने अपनी इच्छानुसार ख़ुद बनवाया था ये बाकी रिक्शों से बड़ा भी था।

विसेस कुछ सालों बाद हमने रिक्शे जन छोड़ कर साइकिल कि सवारी शुरू करी....लेकिन रिक्शे की यादें साथ ही रहीं.स्कूल के लिए करीब घंटे भर पहले निकलना,छुट्टी के बाद भी वापस आने से पहले सबको घर छोड़ते हुए आने मिलता,कई नए दोस्त भी बनते....(मेरी एक ऐसी दोस्त रिक्शे में ही बनी थी,जो कि मेरे रिक्शा बदलने के बाद भी मुझे इत्तेफाक से हर रिक्शे में मिल ही जाती थी)बरसात में चारों ओर से मोटी प्लास्टिक से ढंके रिक्शे में बैठे-बैठे स्कूल से घर पहुंचना,रस्ते में पड़ने वाले पेडों से फूल-फल तोड़ने की कोशिश,पेपर के दिनों में सबके हाँथ में कॉपी और साथ पढ़ते-पढ़ते जाना,भइया से रिक्शे की रेस लगवाना और जीतने पर खुश होना,आपस में कितनी भी लड़ाई हो लेकिन कोई दूसरे रिक्शे का बच्चा अपने रिक्शे के बच्चे से लादे तो एकजूट होकर उसकी ओर से लड़ना...........ऐसी कितनी ही यादें हैं।


आपके रिक्शे कि तरह का कोई भी रिक्शा आज तक नही देखने मिला दुकालू भइया.....और न ही आपके नाम का कोई व्यक्ति मिला दिसम्बर भइया.आज भी आप अपने रिक्शे में बच्चों को स्कूल लेकर जाते होगे....आज भी सीट के झगडे होते होंगे....शायद कल वो भी इस तरह आपको याद करेंगे.

7 comments:

काशिफ़ आरिफ़/Kashif Arif said...

बहुत रोचक! आपने तो मेरे स्कुल के दिनो की याद दिला दी।

हम भी ऐसे ही सीट के लिये लडते थे...

पुरानी यादों को ताज़ा करने का शुक्रिया

ACHARYA RAMESH SACHDEVA said...

AISE KITNE RIKSHA WALE H JINHONE AAP JAISO KO SCHOOL PAHUNCHAYA AUR ; JUDGE, DC, DOCTOR BANAYA.
PRANTU AAJ TAK KISI RIKSHA WALE KA DARD KOI BANTNE NAHI AAYA.
MUAF KARNA BHAVUK HO GYA AAP KI BAAT PADH KAR.
BACHCHE BHI KHUD GARZ HI HOTE H JO JALDI BHUL JATE H.
KAM SE KAM RIKSHA WALE BHAIYA/DRIVE KO KABHI NAHI BHULE YEHI UMEED KARTA HU

RAMESH SACHDEVA

Batangad said...

इत्तेफाकन कभी हमें रिक्शे में नहीं जाना पड़ा

virendra sharma said...

I am reminded of "NIHAL"the one who dropped my daughter and a son to Wonderland school,Rohtak(Haryana),now my son is Lt.Cdr(Indian Navy),daughter Business development,sales and training manager,Detroit(,USA,MI).Nihal is still seen ferrying Riksha to wonderland,as happy as then.the only difference ,he ahs a small house but remains as large hearted as than.congratulations for this fine and emotive write up,BADHAAI.veerubhai .

संगीता पुरी said...

बढिया रोचक पोस्‍ट !!

Udan Tashtari said...

बहुत रोचकता के साथ याद किये पुराने दिन!!

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

बचपन के दिन शायद कुछ ऎसे ही होते हैं.......रोचकता से भरपूर्!