Saturday, June 6, 2009

सच्चा दोस्त

आज सुबह एक दोस्तों के ग्रुप को देखी.....हँसी-मजाक करते हुए,एक दुसरे की खिंचाई करते हुए....मुझे भी अपने स्कूल के वो दिन याद आ गए,जब हम सभी सहेलियों का ग्रुप इसी तरह की मस्ती करता था.हमारी क्लास डे शिफ्ट होने के कारण हमारा अधिकांश समय स्कूल में सहेलियों के साथ ही बीतता था....घर पर आकर भी स्कूल की बातें ही होतीं थी.....हम सभी सहेलियां तो एक-दुसरे का जन्मदिन भी स्कूल में ब्रेक के टाइम मनाया करतीं थी,क्यूंकि हममें से कईयों के घर काफी दूर थे.हम आठ सहेलियां साथ में पढ़ते,घूमते,खेलते,गाने गाते,अपनी खुशियों को बांटते,परेशानियों को भी सुलझाते.....इसी तरह हमारे दिन बीत रहे थे.तभी अचानक पापाजी का ट्रांसफर होने के कारण मुझे अपनी सहेलियों से बिछड़ना पड़ा....अपने हर दिन की कल्पना अपनी सहेलियों के साथ करने वाली मैं उनसे अलग होकर कैसे रहूंगी ये सोच भी नही पा रही थी.

अपनी सहेलियों से बिछड़कर मेरा हाल बुरा था...दिन भर रोती थी,सोचती रहती थी कि वो अभी क्या कर रही होंगी?,अपनी सहेलियों के जन्मदिन पर उनके लिए प्रार्थना करती.वैसे कुछ समय तो हमारा पत्र-व्यवहार भी चला....फ़िर दूरियां इन पर भी हावी हो गयीं.कुछ महीनों के बाद मैं भी संभल गई थी.उड़ीसा में होने के कारण मैंने अपनी आगे की पढ़ाई पत्राचार से की(इसमें मेरी मदद मेरी एक सहेली राखी ने पत्र के द्वारा की,उसे हमारी क्लास टीचर चतुर्वेदी मैडम ने जानकारी दीं थी)....पत्राचार से पढ़ाई करने के कारण मुझे केवल पेपर के समय ही नए दोस्त बनाने का मौका मिलता था...वैसे मैं कुछ लोगों से बात तो करती थी,लेकिन मैंने कभी नए दोस्त बनने की कोशिश ही नही की...शायद मैं अपनी सहेलियों कि जगह सुरक्षित रखना चाहती थी या मुझे नए दोस्त बनाकर उन्हें भी खोने का डर था.

पत्राचार से पढ़ाई करते हुए मुझे एक और परेशानी का सामना करना पड़ा....अकेले पढने का.वैसे स्कूल में मेरी कॉपी हमेशा अप-टू-डेट रहती थी,लेकिन पढ़ाई मैं केवल परीक्षा के समय करती थी...पेपर में कोई उत्तर नही भी आता था,तो क्लास में पढाये अनुसार उत्तर बना लिया करती थी....लेकिन अब तो मुझे ही पूरी पढ़ाई करनी होती थी...न कोई टीचर,न कोई क्लास.इस परेशानी का हल मैंने इस तरह निकाला कि एक ओर मैं ही टीचर बन जाती थी और दूसरी ओर विद्यार्थी भी मैं ही.जब पढ़ते-पढ़ते कुछ समझ में नही आता...तो ख़ुद ही टीचर कि तरह अपने आप को समझाती और समझ में आ जाता.पढ़ाई अच्छी तरह होने के साथ ही इससे एक और फायदा मिला.......मेरी ख़ुद से ही दोस्ती हो गई,जो की आज तक कायम है।

ख़ुद से दोस्ती करने से मेरा अकेलापन भी मुझे बहुत अच्छा लगने लगा...ऐसा नही है कि मैं अपनी सहेलियों को भूल गई...वो आज भी मुझे अज़ीज़ हैं.ख़ुद से दोस्ती करके मैंने मैंने खुश रहने के साथ-साथ अपनी गलतियों के बारे में जाना,अपनी परेशानियों को दूर करना सीखा,अब हर वक्त मेरी ये दोस्त मेरे साथ है और मुझे पता है की ये हमेशा मेरे साथ रहेगी चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों।

जिंदगी में दोस्तों की बहुत अहमियत है.दोस्तों से जिंदगी खुशनुमा बनती है...लेकिन अगर दोस्तों से बिछड़ भी जाएँ,तो जिंदगी में आगे बढ़ना ही अच्छा है.दोस्त जरूरी है,लेकिन उनके सहारे ही जिंदगी जीने की कल्पना ग़लत है.जीवन में ऐसे कई मोड़ आते है,जहाँ आपके सभी दोस्त पीछे रह जाते है...आपके साथ हमेशा रहता है सिर्फ़ आपका वजूद.....और वही आपका सच्चा दोस्त है.

Monday, June 1, 2009

जो कह न सकी

माँ....एक ऐसा शब्द जिसे बच्चा सबसे पहले कहता है.मेरी माँ...जिन्हें मैंने हर वक्त अपने साथ पाया....मुश्किल पलों में सहेली के रूप में,जीवन की कठिन राहों में मार्गदर्शक के रूप में,अकेलेपन में सहारे के रूप में....पहली बार मम्मी को छोड़ कर कही गई तो वो था मेरे स्कूल का पहला दिन....उसके बाद रोज़ पाँच घंटों की दूरी रहती थी...रविवार को छोड़ कर।

स्कूल में नई सहेलियां जरूर बनीं,लेकिन मम्मी ही मेरी बेस्ट फ्रेंड रहीं;अपनी हर बातें मैंने उनके सिवा आज तक अपनी किसी फ्रेंड से नही बांटी...घर वापस आकर स्कूल की छोटी से छोटी बात उन्हें बताती थी...जैसे की उन्हें भी अपनी जानकारियों से अपडेट करना चाहती थी,इसी वजह से जब भी किसी सहेली से कोई बात हो जाया करती तो मम्मी से वो बात कहने में मुझे कभी भूमिका नही बनानी पड़ती थी....क्यूंकि वो सभी को मेरी बातों से जानते थे।

कभी कोई सवाल हल न हो रहा हो या किसी प्रश्न का उत्तर नही आ रहा हो...हल मम्मी के पास मिलता है.....मेरे विषय अलग होने के बाद भी मैं केवल सवाल पूछने से पहले नियमों को बता कर सवाल पूछती तो कोई न कोई हल जरूर मिल जाता नही तो कोई ऐसा सुझाव मिलता जिससे सवाल हल करने में सुविधा होती.एक निश्चित उम्र में जो बातें मुझे पता होनी चाहिए थीं,बड़ी ही सहजता से पता चलती गयीं....आज सोचती हूँ तो समझ आता है की परिस्थितियों को ही इतना सहज बनाया गया था की ये सभी बातें भी सहजता से समझ आतीं चलीं गई.

स्कूल के दिनों के बाद कई बार मम्मी से कई-कई महीनों अलग रहना पड़ा...फ़ोन पर भी बात नही होती थी,फ़िर भी वो साथ ही लगतीं थी.मुझे याद है जब मैं १२ वी की परीक्षा के लिए मामाजी के घर गई थी.....मैंने मम्मी के बारे में एक बुरा सपना देखा.....सुबह आँख खुली तो मैं रोते-रोते ही उठी.....सपना भी बहुत सुबह का था और मैंने सुन रखा था कि सुबह का सपना सच होता है....रो-रोकर मेरा हाल बुरा हो गया था.वैसे तो मैं बचपन से रोने के लिए मशहूर थी....खासकर मामाजी जब घर वापस आते तब मेरे नाम की एक धुन सीटी से बजाते थे और वो धुन सुनते ही मेरा रोना सुरु हो जाता था...इस वजह से मामाजी को नानीजी से डांट भी खानी पड़ती थी और वो कहते-"मैंने तो सिर्फ़ सीटी बजाई है".........लेकिन उस दिन का मेरा रोना देखकर सभी बहुत परेशान हो गए,काफी देर सभी ने मुझे समझाया तब जाकर मेरा रोना बंद हुआ....वैसे इस बात को काफ़ी दिनों तक आपस में सब ने सुनाया.वैसे ही एक बार जब मेरे पेपर के बीच में मम्मी मुझसे मिलने आए और जब वापस जाने लगे तो अचानक लगा की बाकि सारे पेपर छोड़ कर मम्मी के साथ चली जाऊं।

आज सोचती हूँ,तो पाती हूँ की कई बार मैंने मम्मी का दिल दुखाया है....कई बार बिना कुछ सोचे समझे जवाब दे दिया...कई बार अनजाने में मुह से कोई ऐसी बात निकल गई जो उन्हें तकलीफ दे गई और कुछ पलों बाद मुझे भी...मेरी गलती ये रही की मैंने इसके लिए भगवान् से तो माफ़ी मांगी लेकिन अपनी माँ से नही.मुझे पता है;इसके माँ तो माफ़ कर देंगी...लेकिन भगवान् नही!

कुछ महीनों पहले मम्मी की तबियत ख़राब हो गई थी....उन्हें हॉस्पिटल ले जाना पड़ा.....हॉस्पिटल पहुँचने पर उन्हें स्ट्रेचर पर सुलाया गया(उन्हें बहुत चक्कर आ रहे थे) इस हालत में मैंने अपनी माँ को नही पहले कभी नही देखा था....उस वक्त उन्हें देखकर कैसा लगा ये शायद बता नही पाऊँगी,बस इतना बता सकती हूँ कि,मुझे अपने आंसू छिपाने की नाकाम कोशिश करनी पड़ी.....मम्मी पाँच दिन बाद घर आए,लेकिन हॉस्पिटल में भी उन्हें हमेशा घर की चिंता रहती थी....सब ठीक से खाना खा रहे है की नही,काम का ज्यादा बोझ मत लेना,तुम लोग को फालतू में परेशान कर रही हूँ,वगेरह,वगेरह.मुझे भी घर पर सारे दिन बेचैनी रहती थी की कब रात हो और मैं मम्मी के पास जाऊँ।

आज तक मैंने बहुत गलतियां की हैं.....जिनके लिए मुझे बिना कुछ कहे माफ़ी मिली है.....मेरी माँ तो सबसे अच्छी माँ हैं.....पता नही मैं कैसी बेटी हूँ?इतना तो पता है की मैं एक परफेक्ट बेटी नही हूँ,जो अपनी माँ को हमेशा खुश रखे,उनसे कभी कोई बुरी बात न कहे,अपनी गलतियों के लिए माफ़ी मांगे....लेकिन हाँ,कहीं न कहीं मैं इस सुधार के रस्ते पर चलना तो चाह रही हूँ और मुझे आज भी जरूरत है एक मार्गदर्शक की.....अपनी माँ की।

इस पोस्ट के जरिये अपनी माँ को वो सभी बातें कहना चाहती हूँ,जो कभी उनसे रूबरू नही कर पाई.मेरी सभी गलतियों के लिए मुझे माफ़ करना....माँ.