Wednesday, March 13, 2024

ज़िंदगी:माँ के बाद














 माँ के जाने के बाद एक समय ऐसा भी गुज़रा जब मैं सबके साथ होते हुए भी पूरी तरह से अकेली थी। ऐसा कई- कई बार अब भी होता है। जब मुझे समझ ही नहीं आता कि आख़िर मैं अपनी बातें करने के लिए किसके पास जाऊँ। ऐसा नहीं है कि परिवार में कोई भी मेरे साथ नहीं है बल्कि ये कुछ इस तरह से है कि आप एक निश्चित इंसान से ही अपनी बातें कहते हैं। वो आपको सुनता है और समझता भी है। पहले मुझे लगता था कि मैं अंतर्मुखी हूँ लेकिन मैं ढेर सारी बातें करने वालों में से हूँ। ऐसे लोगों को अंतर्मुखी तो नहीं कहा जाता है। फिर भी कई ऐसी बातें हैं जो मैं किसी से कहना नहीं चाहती या कहूँ कि कह ही नहीं पाती। 

ढेरों बातों में कई बातें होती हैं लेकिन वो नहीं जो वास्तव में की जानी चाहिए। पहले ऐसी बातों को लिख लेना मेरे लिये एक समाधान की तरह होता था। पर अब तो उन्हें लिखने में भी मुझे उलझन ही रहती है। ख़ैर बात यहाँ शुरू हुई थी माँ के जाने के बाद मिले अकेलेपन से। मैं कई मौक़ों पर ये चाहती रही हूँ कि मुझे अकेले बहुत कुछ करने दिया जाये या कहीं जाने दिया जाए। जो मैं नहीं चाहती थी वो ये कि मैं इस तरह से अकेली होऊँ। पर आपके चाहने या न चाहने से कोई बात नहीं बनती। जो होना होता है वो होता ही है। 

ख़ैर ज़िंदगी अब दो भागों में बँट गई है, माँ के साथ की ज़िंदगी और माँ के बाद की ज़िंदगी। कहना ही होगा कि माँ के बाद की ज़िंदगी ने मुझे बहुत से पाठ पढ़ाए। माँ ने मुझे अपने आँचल में इस तरह से समेटा हुआ था कि उनकी छाँव में मैंने भले ही ज़िंदगी के कठोरतम समय को गुज़ारा लेकिन माँ का साथ था तो वो दिन भी किसी परीक्षा से बीत गये। पर माँ के जाने के बाद से ही जीवन एक अलग ही चुनौती का नाम बनता जा रहा है। जब- जब लगता है कि इस चुनौती को मैंने कहीं न कहीं पार पाने योग्य ख़ुद को बना लिया है। तभी एक नयी चुनौती सामने आती है। 

बचपन से या कहूँ जब से मुझे याद है तभी से मैं अपने जीवन में आने वाली हर बाधाओं को अपनाकर उन्हें मेहनत से या जूझते हुए पार कर पायी हूँ। पर इन दिनों ये सारी चुनौतियाँ मुझे उलझाती हैं। माँ के जाने के बाद कुछ डेढ़ साल तक तो मुझे यही महसूस हुआ कि चुनौतियों के क़ब्ज़े में मैं पूरी तरह उलझकर रह गई हूँ। पर अब मैंने मौन धरकर चुनौती को पार करने का साहस अपनाया है। मुझे कई बार कुछ कह देने के कारण मुश्किलों का सामना करना होता है। ख़ासतौर से आसपास की चीज़ें न बिगड़ने देने का प्रयास मेरे लिये ढेर सारी मुश्किलें ले आता है। 

माँ के जाने के बाद मैं काफ़ी कुछ सीख रही हूँ। बहुत कुछ मैंने अचीव भी किया है। काश ये सब उनके साथ सीधे तौर पर बाँटा जा सकता। कभी - कभी जब उनकी कोई तस्वीर मेरे सामने आती है तो मैं याद करती हूँ कि आख़िर उस दिन क्या था? उस दिन जब ये तस्वीर खींची गई तब माँ क्या कह रही थीं? और भी न जाने क्या- क्या। शायद ये सिलसिला ज़िंदगी भर रहेगा...मेरी कहानी में...


फोटो: गूगल से साभार 

Monday, November 20, 2023

काश...सपने सच हो जाते


 कल सपने में माँ आयीं थीं। पिछले कुछ दिनों से मेरी तबियत ठीक नहीं है तो ऐसे में माँ याद आ ही जाती हैं। वैसे जब डेढ़ साल पहले माँ इस दुनिया में हमें छोड़कर चली गयीं थीं। तब शायद उन्होंने बहुत कुछ सोचा नहीं होगा। यूँ तो हम भी कुछ सोच नहीं पाए थे। पर वो बातें कभी और। आज तो सपने की बात करनी है। माँ के जाने के बाद से माँ मेरे सपनों में कम- कम ही आयीं लेकिन जब- जब मैं परेशान होती हूँ वो आती हैं। कई- कई बार यूँ भी किसी रोज़ आती हैं। 

ख़ैर कल सपने में जब माँ आयीं तो मैं उस समय कहीं जाने की तैयारी में थी। जहाँ तक मुझे याद आता है मैं कहीं पढ़ने जाने के लिए बैग के साथ तैयार थी। मैंने लिफ़्ट में कदम रखा और नीचे उतर गयी। तब तक माँ से मैं मिल नहीं पायी थी। फिर मुझे याद आया कि शायद मैं कुछ सामान ऊपर ही भूल आयी हूँ। मैंने वापस लिफ़्ट में कदम रखा और बिना लिफ़्ट का दरवाज़ा बंद हुए सीधे घर पहुँच गयी। 

माँ से कुछ बातें की। हमने एक- दूसरे को अपना ख़याल रखने की हिदायत दी और मैं घर से निकल चली। इस बार भी लिफ़्ट ने दरवाज़ा बंद नहीं किया। ख़ैर जब मैं पहुँची तब तक मेरे साथ जाने वाली लड़की निकल चुकी थी। टाइम देखकर मुझे पता चला कि मेरी ट्रेन भी जा चुकी है। घर वापस जाना यानी अकेले सफ़र करने के अपने मौक़े को खोना (ये बातें सपने में भी याद रहती हैं)। 

मैं जाने कहाँ रुक गयी। शायद किसी होटल में बाद में मैंने यहाँ से माँ को कॉल किया और उनसे बात करके उन्हें सब बताया। जिस तरह मैं उन्हें पहले सब बताया करती थी। हमने तय किया कि माँ मुझे मिलेंगी और मैं उनके साथ कहीं घूम आऊँगी। वैसे इसके बाद मुझे सपने में याद आया कि माँ तो हैं ही नहीं (ये बातें भी मुझे सपने तक में याद आ जाती हैं)। मैंने माँ को ही इस बारे में बताया कि वो नहीं हैं पर अब मैं उनसे बात कर पा रही हूँ। 

शायद किसी को ये सपना बेवक़ूफ़ाना लगे लेकिन मुझे बहुत प्यारा लगा, संजोने लायक। तो आज इतना ही फिर कभी किसी नयी बात को जोड़ूँगी...मेरी कहानी में..

तस्वीर: गूगल से साभार


Wednesday, November 28, 2012

कार्तिक पूर्णिमा: बहते दिये और लंगर



कार्तिक पूर्णिमा...सिर्फ दो बातों की याद दिलाती है...सुबह अंधेरे मे नदी-तालाबों मे तैरते दीयों की रोशनी और गुरुनानक जयंती मे गुरुद्वारे मे होने वाले लंगर की...

ये दोनों यादें बचपन से जुड़ी हुई खास यादों का हिस्सा हैं...मुझे याद है जब मैं स्कूल मे थी तब मेरी कई पंजाबी सहेलियाँ थीं...उनके साथ ही मैं हर गुरुनानक जयंती मे गुरुद्वारे ज़रूर जाती....वहाँ का माहौल ही मुझे बहुत पसंद आता...वहाँ कभी किसी मे कोई भेद नहीं होता..और एक बात जो मुझे हमेशा अच्छी लगती वो ये की रोटी हमेशा हाथ फैलाकर लेनी पड़ती...जो इस बात का अहसास कराती की कोई है जो हमें खाना दे रहा है...कोई हमसे भी बड़ा है...जिसके कारण आज हमारे पेट भरे हुये हैं...और दूसरी बात हम वहाँ घंटों खड़े होकर रोटियाँ बनते देखते...कैसे एक साथ इतने लोग काम मे लगे होते...आटा लगाने के लिए ,रोटियाँ बेलने के लिए और रोटियाँ सेंकने के लिए चढ़ा बड़ा सा तवा तो हमेशा मेरी नज़रों मे होता....और खाना हमेशा स्वादिष्ट ही होता...

कुछ साल बाद जब हम अपने गाँव आए तो यहाँ कई लोग कार्तिक स्नान किया करते थे...और जो नहीं कर पाते वो आखिरी पाँच दिन स्नान करते...और सभी कार्तिक पूर्णिमा के दिन सुबह 4-5 बजे,सूर्योदय से पहले नदी और तालाबों मे जाकर पत्तों के दोने मे आते के दिये जलाकर उनकी पूजा करके नदी मे छोडते...मैं भी मम्मी के साथ हर बार जाती...अंधेरे मे एक साथ नदी मे बहते दिये देखना भी अपने आप मे एक अनोखा अनुभव होता था...और उससे भी ज़्यादा अपने दिये को उन सभी दीयों के साथ जाते देखना तो और भी खुशी दे जाता...कई लोग कागज़ की रंग बिरंगी नाव मे अपने दिये रखते,कुछ लोग केले के पेड़ के तने पर दिये रखते...नदियों मे दिये तैरने के लिए हम ठंड की परवाह भी नही करते थे...बहुत अच्छे थे वो दिन....

यहाँ आने के बाद मैंने भी कई बार कार्तिक स्नान किया..पर यहाँ कभी न तो दिये बहाने जा सकी और न ही गुरुद्वारे पर लंगर खाने गयी...पर ये दोनों यादें हमेशा मेरे साथ हैं और कार्तिक पूर्णिमा के आते ही हर साल नयी हो जाती हैं...ये बहुत ही खास यादें हैं...मेरी कहानी मे 

Tuesday, September 20, 2011

मिलन : हमारा-तुम्हारा

कुछ दिनों पहले ही मुझे अपनी एक पुरानी सहेली नेट पर मिली....और उससे एक दूसरी सहेली का नंबर मिला और उससे दूसरी का...बस इस तरह मुझे अपनी सभी सहेलियों के नम्बर मिले और उनके बारे में भी पता चला...मेरी उनसे अक्सर बातें होने लगीं और हम फिर से एक दूसरे से जुड़ गए....कुछ हफ़्तों पहले मुझे किसी काम से उस शहर के पास जाने का मौका मिला..जहाँ मेरी पढाई हुई थी और मेरी सहेलियां रहती हैं...पर जब प्रोग्राम बना तब हमें उसके पास के शहर से दूसरी ओर जाना था...सो मुझे ख़ुशी तो थी की मैं अपनी सहेलियों के पास तक जा सकुंगी लेकिन उनसे नहीं मिल पाऊँगी इस बात का अफ़सोस भी था...जब हम रायपुर पहुंचे तो पाता चला कि भारी बारिश की वजह से सभी रास्ते बंद हैं इसलिए हमें रायपुर में ही रुकना होगा...सो इस बारिश की बदौलत ही सही हमने भिलाई जाकर अपने दोस्तों से मिलने का फ़ैसला किया...

जब से अपनी सहेलियों का नम्बर और उनके बारे में पाता चला तब से ही उनसे मिलने का मन हो रहा था...लेकिन जब उनसे मिलने जा रही थी तो एक अजीब सा विचार था कि पता नहीं ११ साल बाद अब मेरी सहेलियां कैसी होंगी?...क्या वो अब भी पहले जैसी ही होंगी?....ज़रा भी बदली नहीं होंगी...?...क्या वो मुझसे मिलकर खुश होंगी..? और भी न जाने क्या-क्या...मैंने अपनी एक सहेली को स्टेशन आने के लिए कहा...मैं उसके साथ बाकि सहेलियों से मिलने जाने वाली थी...स्टेशन में पहुँचते ही मैंने उसे फ़ोन किया...वो वहां पहुँच चुकी थी...उससे मिलते ही सारे डर मन से निकल गए...वो बिलकुल उसी तरह मिली जैसे हम स्कूल में मिला करते थे...हमने ढेर सारी बातें की...बाकि सभी सहेलियों को कॉल किया...वो सभी अपने काम छोड़कर मुझसे मिलने दौड़ी चली आईं....सभी बहुत प्यार से मिलीं....हम सभी बिलकुल उसी तरह बातों में लग गए जैसे हम स्कूल के दिनों में किया करते थे...

उन ३ घंटों में हम सभी ने एक बार फिर से अपने स्कूल के दिनों को जी लिया...मुझे आश्चर्य तो हुआ और साथ ही साथ ख़ुशी भी की..मेरी सहेलियां अब भी उतनी ही प्यारी और भोली हैं...बिलकुल वैसी ही हैं जैसा मैं उन्हें छोड़ आई थी...उस दिन मुझे एक बात का अहसास हुआ कि वक्त बहुत कुछ बदल सकता है....पर मेरी सहेलियों पर उसका कोई जोर नहीं चलता...मैंने अपने इसी ब्लॉग में एक बार लिखा था कि ये रेल की पटरियां हमें हमेशा एक दूसरे से दूर कर दिया करती थीं...और ११ साल पहले उसने साजिश करके हमें बहुत दूर कर दिया...लेकिन मुझे आज समझ आया कि उस वक्त भी जब मैं पटरियों को पार करके जाती थी तो अपनी सहेलियों से मिल पाती थी...और अब ११ साल बाद भी मैंने पटरियों को पार करके अपनी सहेलियों को पा लिया...

अपनी सहेलियों से मिलकर अब ज़िन्दगी की एक बड़ी ख़ुशी है....मेरी कहानी में....


Friday, May 20, 2011

उलझे रास्तों का नया सफ़र

अभी कुछ दिनों पहले अपने हाथ के कॉर्न के लिए होम्योपथिक डॉक्टर से मिली.....ये हॉस्पिटल विले पार्ले(मुंबई)में है और वहाँ की खास बात ये है कि वो आपकी बीमारी का इलाज करने तक ही मतलब नहीं रखते...वो पहले आपके नेचर को जानते हैं...कुछ सवालों से या फिर वो आपसे ही कहते हैं कि आप अपने बारे में कुछ बताइए...यही सब मेरे साथ भी किया गया....अपने बारे में काफी कुछ मैंने उन्हें बताया...जो शायद मैंने किसी से अब तक कहा भी नहीं था....उसके बाद डॉक्टर ने मेरे सामने कुछ नए सवाल रखे,जो थे तो मेरी ही ज़िन्दगी से जुड़े लेकिन कभी मेरे सामने आये नहीं थे.....उनके इन सवालों का साइड इफैक्ट ये हुआ कि मैं दिन भर तो उनके जवाब की तलाश में अपने दिमाग को उलझाती ही रही साथ ही मेरी रातों की नींद भी इन जवाबों को ढूंढने में खो गयीं....इस तरह से कुछ दिन परेशान रहने के बाद कुछ जवाब सामने आये...जिन्होंने मेरी उलझनों को कम तो किया...लेकिन अपने साथ कुछ सवाल भी ले आये...ये सवालों और जवाबों का रिश्ता ही कुछ ऐसा है...खुद तो साथ में रहते हैं, लेकिन इंसान को दुनिया से अलग कर देते हैं....बस यही हाल मेरा भी था...फिर डॉक्टर से मिली....उसे मेरे जवाबों से कुछ अच्छा लगा....वो एक मेडिकल कॉलेज है तो हमेशा वहां सिर्फ डॉक्टर ही नहीं स्टुडेंट भी मौजूद होते हैं अपनी नोटबुक के साथ....स्टुडेंट्स तो काफी इंटरेस्ट लेते हैं मुझ पर...शायद कभी ऐसा कोई पेशेंट मिला ही नहीं होगा उन्हें...

डॉक्टर भी कहाँ मानने वाले थे...जिंदगी के कुछ और पन्ने उनके सामने रखी और उन्होंने बदले में मेरे सामने कुछ नए सवाल रख दिए,इस बार सवालों का जवाब नहीं ढूँढना था....क्यूंकि जवाब मेरे पास ही थे,मैं सही रास्ता जानते हुए भी उस पर चल नहीं पा रही थी...और डॉक्टर का यही कहना था कि "आपने अपने बीते हुए समय से खुद को कुछ इस तरह से बाँध रखा है कि आगे ही नहीं बढ़ पा रही....वहाँ आपने एक हुक फंसा रखा है...बस उसको निकलकर आगे बढ़ो...पानी की तरह खुद को बहने दो...पानी कभी एक आकार में बंधा नहीं होता...और रुका हुआ पानी भी कभी साफ़ नहीं रहता...बस जैसा दिल करता है वैसा ही करो...और आप आज़ाद हो जाओगे...उसने कहा..."अब फैसला आपको करना है कि आप किस तरह से जीना चाहते हैं...अपने बीते हुए कल की तरह या एक आज़ाद पंछी की तरह..." अब बस उसी हुक की तलाश में थी....मिल तो गया पर उसमे जंग लगी हुई है...खोलने के लिए मेहनत लगानी होगी...मेहनत लगा तो रही हूँ..पर कभी-कभी थक कर बिलकुल टूट जाती हूँ...इसी तरह कुछ उलझी हुई सी एक बार और डॉक्टर से मिल आई....एक नयी बात उनके सामने रखी जो कोई जवाब नहीं बल्कि एक सवाल ही था....लेकिन उसने उसी सवाल को कुछ बड़ा करके मेरे ही सामने रख दिया....सवाल के दो जवाब हैं और मुझे एक चुनना है....कौन सा जवाब सही है और कौन सा ग़लत..?...आज सही लगने वाला जवाब कल ग़लत भी हो सकता है और ग़लत लगने वाला जवाब सही....

अब मेरा दिमाग कुछ ऐसा उलझा है कि मैं बस उसे ही पढ़ रही हूँ और कुछ भी नहीं..सबके साथ हूँ पर उनके साथ नहीं हूँ...सिर्फ अपने साथ हूँ...और कुछ यूँ उलझी हुई हूँ कि....पता नहीं रास्ता कहाँ मिलेगा....लेकिन कुछ भी हो मैं इस बार ये खोज नहीं रोकूंगी...मेरी जिंदगी का ये सबसे बड़ा सफ़र है...और मुझे इस पर सभी रास्ते खुद ही खोजने हैं...इस अनोखे सफ़र की शुरुवात हो चुकी है...मेरी कहानी में

Friday, August 20, 2010

कोई मिल गया


आज का दिन मेरी ज़िन्दगी का सबसे सुनहरा दिन है....आज मुझे अपनी एक बिछड़ी सहेली मिल गई...राखी सिंग चंदेल...जब मैं सारी सहेलियों से बिछड़ी थी तब ये ही एक ऐसी सहेली थी जिसने पत्र-व्यवहार काफी लबे समय तक जारी रखा....लेकिन बाद में उसकी व्यस्तता बढती गई और पत्र कम होते-होते बंद हो गए....फिर घर सिफ्टिंग के समय मुझसे इसका पता भी गुम गया...और हम कभी बाते न कर सके....

वैसे मैं बहुत ज्यादा नेट चलाने वालों में से नहीं हूँ....सो ज्यादा साइट्स पर भी मेरा आना-जाना नहीं है.....कुछ दिनों पहले अपनी ममेरी और मौसेरी बहनों के कहने पर ऑरकुट ज्वाइन किया....तो मुझे लगा क्यूँ न अपनी सहेलियों को ढूंढने का प्रयास किया जाये...मुझे उनके नाम पता थे....ये पता नहीं था कि उनकी शादी हो चुकी है या नहीं...फिर भी मैंने शहर और नाम के आधार पर उनकी तलाश की....कुछ जो उनसे मिलते-जुलते लगे उन्हें पूछा भी.....आज सुबह जब नेट लगाया तो पता चला...कि मेरी इस खोज का असर हुआ है...कुछ ने मेरी सहेलियां नहीं होने के बावजूद मुझे सहेली बनाया...और सबसे ख़ुशी की बात ये हुई की...मुझे अपनी एक सहेली मिल गई...

इसी ख़ुशी को मैंने सभी के साथ बाटने की सोची और आ गई यहाँ......मैं ऑरकुट का तहे दिल से शुक्रिया अदा करना चाहती हूँ...जिसने मुझमे ये आस जगाई की शायद अब मैं अपनी सारी सहेलियों से मिल सकूं...आज सबसे बड़ी ख़ुशी का दिन है...मेरी कहानी में....

Friday, June 25, 2010

कुछ बातें

बचपन से ही जब मुझे घर पर छोड़ कर दोनों भाई स्कूल जाया करते थे....मुझे बहुत बुरा लगता था और मैं बस इंतज़ार किया करती थी....न सिर्फ उनके आने का बल्कि जल्दी से बड़ी होकर अपने स्कूल जाने का भी....और जब वो दिन आया....मेरी ख़ुशी का तो ठिकाना ही नहीं था.......मैंने कई बच्चों को रोते हुए स्कूल जाते देखा है....लेकिन मैं स्कूल जाने के लिए रोया करती थी....क्यूंकि तेज़ बारिश में कई बार रिक्शेवाले भइया नहीं आया करते थे....और घर पर इतनी दूर तक जाने के लिए साधन नहीं होता था....मुझे वाकई स्कूल बहुत पसंद था....मुझे छुट्टियां बिलकुल भी पसंद नहीं आती थी....हमारे स्कूल में दीपावली की छुट्टियां पूरे १ महीने की लगती थीं.....सभी इस बात से काफी खुश रहा करते थे....मुझे भी थोड़ी ख़ुशी होती थी कि त्यौहार अच्छी तरह मनाएंगे....लेकिन दुःख भी रहता था कि अब सहेलियों से महीने भर मिलने नहीं मिलेगा....इसका एक कारण था...हमारा स्कूल स्टील प्लांट का था....सो मेरी अधिकाँश सहेलियां रेलवे क्रॉसिंग के पार ही रहा करती थीं...जबकि हम क्रॉसिंग के इस पार रहा करते थे.....इसलिए उनसे केवल स्कूल में ही मिल पाती थी....


वैसे तो मुझे हमेशा ही उनका ख्याल रहता है....लेकिन कल मुझे उनकी बड़ी याद आ रही थी....जब हम भिलाई छोड़कर आये...तब मेरे पास अपनी कुछ सहेलियों का पता तो था....लेकिन नंबर नहीं...इस लिए अब मेरे पास अपनी स्कूल की यादों के अलावा कुछ नहीं है......पहले भी रेल की पटरियां हमें रोज़ बाँटने की साजिश किया करती थीं...लेकिन हमने उन्हें कभी सफल नहीं होने दिया....सो उन्होंने ११ साल पहले ऐसी साजिश की....कि हम आज तक नहीं मिल पाए....मुझे पूरा विश्वास है...हम पटरियों की इस साजिश को भी जल्द ही नाकाम करेंगे...

किसी भी साजिश की कोई जगह नहीं..... मेरी कहानी में.....