Thursday, May 28, 2009

स्कूल का पहला दिन

आज अचानक अपने स्कूल का पहला दिन याद आ गया.छोटी होने के कारण कई फायदे तो थे लेकिन नुकसान भी था...मुझे घर पर सारे दिन अपने भाइयों के स्कूल से घर आने का इंतजार करना पड़ता था,इस बोरियत को मिटाने के लिए मम्मी मुझे अक्षर ज्ञान और लिखना सिखाते थे......इसी वजह से मैं स्कूल जाने से पहले ही कॉमिक्स पढने लगी थी या यूँ भी कहा जा सकता है की मैंने कॉमिक्स से ही पढ़ना सीखा.

आखिरकार मेरा स्कूल में दाखिला हुआ...मैंने पहले पहली का वार्षिक परीक्षा का पेपर हल किया,फ़िर दूसरी के दाखिले का....इस तरह मुझे सीधे दूसरी कक्षा में दाखिला मिला.स्कूल हमारे घर से बहुत दूर था....पहले दिन पापाजी मुझे छोड़ने आए और लेने भी.मेरी पहली क्लास टीचर थीं "ठाकुर मैडम",उन्होंने ही मेरी दोस्ती पहले दिन दो लड़कियों.....आयशा और पूनम से करवाई,ये दोनों पढने में बहुत होशियार थीं.

स्कूल का पहला दिन बहुत ही अच्छा रहा...मेरा तो स्कूल जाने का शौक ही पूरा हो गया था,वापस घर आकर मैंने अपनी स्कूल की सारी बातें मम्मी को बताई....स्कूल के पहले दिन से लेकर आज तक ये सिलसिला जारी है.मेरे रोज सारी बातें इस तरह से बताने के कारण मेरे दोनों भाई मुझे कहते-"तू मम्मी को साथ में स्कूल ले जाया कर,तो तुझे रोज़ आकर स्कूल पुराण नही गाना पड़ेगा"....लेकिन मैं नही सुधरी।

एक साल बाद पापाजी की पहचान वाली मैडम,जिन्होंने मेरे दाखिले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी,ने मुझे अपनी क्लास में ले लिया,जिसके कारण क्लास के बीच की दूरी....मेरे और मेरी सहेलियों के बीच भी आ गई.इस नई क्लास में कई लोगों से मेरी दोस्ती हुई...उनमे से एक थी....गाइड....क्यूंकि वर्मा मैडम(मेरी २ री क्लास टीचर)सिंगर थीं....और शायद पढाना उनका पार्ट टाइम जॉब था,तो हम गाइड से ही पढ़ते थे.मुझे आज तक समझ नही आया कि उन्होंने मुझे अपनी क्लास में लेकर अच्छा किया या बुरा?खैर यहाँ मुझसे जिन्होंने भी दोस्ती की,उन्होंने मुझे बहुत परेशान किया.ये लडकियां एक माफिया गैंग की तरह थीं....क्लास की बाकी लड़कियों से अपना काम पूरा करवाना,उनके टिफिन खाना,यहाँ तक की पेपर के समय भी ये यही सारे काम करती थीं.....बताने में बुरा तो लग रहा है,लेकिन हाँ मैं भी उन बाकी लड़कियों में शामिल थी.मम्मी के होते हुए मेरी पढ़ाई में कोई फर्क नही पड़ा और रिजल्ट में भी नही......लेकिन मेरी वजह से उनके रिजल्ट जरूर प्रभावित हुए।

जब मुझे स्कूल जाते हुए एक-दो हफ्ते हुए थे तभी वर्मा मैडम ने मुझे क्लास से स्टाफ-रूम में बुलाया....इस छोटे से रस्ते में ही मैंने अपनी बातों को सोच कर उसमें से अपनी गलतियां निकालने की कोशिश की,लेकिन फायदा नही हुआ,क्यूंकि स्टाफ-रूम आ गया था.अन्दर घुसते हुए ही मेरे आंसू मेरी आंखों के बिल्कुल पीछे छुप कर अपने बाहर आने का इंतजार करने लगे.तभी मैडम ने एक कागज हाथ में देते हुए कहा.."इसे पढो,ये गाना गाकर सुनाओ...मैं जैसा बोलती हूँ...वैसा-वैसा बोलो........सबसे अच्छा दिन इतवार ......बोलो",बस....मुझे याद नही की मैंने दो या चार कितनी लाइन बोलीं.....हाँ गाना पूरा होने से पहले ही मेरे आंसू निकल आए....और मुझे मिला एक अच्छा मौका निकल गया...तब ही मैडम ने पापाजी से कह दिया था कि,"मैं आपकी बेटी को और कभी गाने को नही कहूँगी....मैंने कुछ भी नही किया और वो सिसक-सिसक कर रो रही थी"।

आख़िरकर मुझे ख़ुद ही पांचवी में मैडम को बोलना पड़ा कि,"मैडम मैं गाने में रहना चाहती हूँ"और हमने चार गाने गाये.इस तरह प्रायमरी ख़त्म हुई...अब हमें बगल वाली गर्ल्स स्कूल में दाखिला लेना था,जिसके बारे में हमारी स्कूल में अफवाह थी कि वहाँ के हॉल में पाँच लड़कियों का भूत रहता है...जो कि दशहरा-दीपावली कि एक महीने की छुट्टी के दौरान वहाँ बंद हो गयीं थीं.हम इस स्कूल में एक बार पहले अपनी सहेली के साथ उसकी बहन की क्लास गये थे....ये बहुत ही बड़ा स्कूल था,अगर उसकी बहन हमें बाहर छोड़ने नही आती तो शायद हम बाहर नही आ पाते।

इस नए स्कूल में पढने के लिए मैं बहुत खुश थी....साथ ही साथ भगवान् से प्रार्थना कर रही थी की किसी तरह मेरा अपनी इन सभी सहेलियों से पीछा छुट जाए और मैं नई सहेलियां बनाऊं,भगवान् ने मेरी सुन ली.इस नए स्कूल में,नई क्लास में मुझे एक नई सहेली भी मिली....कविता साहू....मेरे दोनों भाई मुझे इसका नाम ले लेकर चिढाते भी थे,क्यूंकि मैं इसके बारे में कोई मज़ाक बर्दास्त नही कर पाती थी.इसके अलावा भी मुझे यहाँ कई सहेलियां मिलीं और भी कई बातें यहाँ से जुड़ी हुई हैं....जिन्हें बाद में बताऊंगी.

Thursday, May 21, 2009

भेलवाले बाबा



कल मार्केट में एक भेल(मुर्रे में कुछ चटपटी चीजें मिलकर बनाई जाती है/गुपचुप की दूर की बहन)वाले को देख कर अचानक अपने स्कूल के सामने खड़े होने वाले भेल वाले बाबा की याद आ गई.......हमारे भेलवाले बाबा हम लड़कियों को "भवानी" कहकर बुलाते थे......उनका वो गाना"जो खायेगा हमारी भेल,कभी होगा नही वो फेल,चलती रहेगी उसकी रेल,धक्का पेल"सुनते ही हमारी हँसी छुट जाती थी.

हम उनसे कहा भी करते थे- बाबा!पढेंगे नही तो आपकी भेल तो पास नही कराएगी न?
उनका जवाब होता था-गजब करती हो भवानी!पढ़ना तो पड़ेगा ही लेकिन हमारी भेल से पड़ने के लिए ताकत आएगी?

......वो कभी भी किसी ऐसे लड़के को वहां खड़े नही होने दिया करते थे,जो की उन्हें ठीक नही लगता था.मेरी उनसे ख़ास पहचान थी...क्यूंकि भैया को अपनी स्कूल से मेरी स्कूल तक आने में टाइम लगता था और तब तक सब जा चुके होते थे,तो मैं उनके पास खड़े होकर भैया का इंतजार किया करती थी.अगर किसी दिन भैया की छुट्टी होती थी....तो भी वो मुझे बाबा के ठेले के पास ही मिलते थे.वैसे मैंने अपने पूरे स्कूल टाइम में चार-पॉँच बार ही उनकी भेल खाई....लेकिन फ़िर भी उसका स्वाद मेरे मन में अब भी मौजूद है.आज तक मैंने कभी उस स्वाद की भेल दोबारा नही चखी.

आज भी सोचती हूँ......क्या बाबा अब भी वहाँ बैठते होंगे?....क्या अब भी गर्ल्स स्कूल की लड़कियों को वही भेल खाने मिलती होगी?......क्या अब भी लडकियां उनके मुह से अपने लिए'भवानी'सुनकर हंस पड़ती होंगी?.......देखा जाए तो स्कूल में बस शिक्षक,दोस्त,पढ़ाई ही नही होती,बल्कि हमारे भेल वाले बाबा के बिना तो स्कूल याद ही नही आता...क्यूंकि मेरी स्कूल की यादें जब गेट से अन्दर घुस रही होतीं हैं बाबा तो वहीँ बाहर खड़े मिलते हैं,और कहते हैं....."गजब करती हो भवानी....आज भेल नही खाओगी"

(ये फोटो हमारे भेलवाले बाबा की नही है,लेकिन ये उनकी तरह ही दिख रहे हैं...और उनकी भेल भी...)

Tuesday, May 12, 2009

एक और धन्यवाद

पिछली बार मैंने अपने इतिहास के टीचर के बारे मैं लिखा था और आज मैं अपनी संस्कृत की टीचर के बारे मैं लिखना चाहती हूँ;वैसे ये करीब-करीब एक ही तरह की बात होगी लेकिन फ़िर भी....हम घर में बचपन से ही मंत्रों का जाप किया करते थे और हर रविवार हम यज्ञ करने गायत्री मन्दिर भी जाया करते थे ,सो बचपन से ही संस्कृत के लिए मन में एक चाह थी.जब हम छटवीं में गए तभी संस्कृत एक नए विषय के रूप में सामने आया;बाद में इसकी खूबी के साथ ही इसकी मुश्किलें भी सामने आयीं.एक भी बिंदी या विसर्ग छुट जाए तो सही जवाब भी ग़लत हो जाता है.खैर हमें इसका हल भी मिल गया......हमें संस्कृत पढ़ने के लिए जोगलेकर मैडम का साथ मिल गया.उन्होंने हमें बताया की किस तरह से बड़े-बड़े संस्कृत के शब्दों को संधि करके उनके अर्थ जाना जा सकता है और उनका उच्चारण भी सही किया जा सकता है.आज उनकी वजह से ही मैं आसानी से मंत्रों का उच्चारण कर पाती हूँ...और कुछ दिन पहले ही मैंने गायत्री यज्ञ में परिव्राजकों के साथ मंत्रों का उच्चारण करवाकर यज्ञ करवाया था .आज मैं तहेदिल से अपनी मैडम को धन्यवाद करती हूँ.

Thursday, May 7, 2009

बोरकर सर:जिन्होंने कभी बोर नही किया

आज अचानक ही अपने स्कूल की बात याद आ गई.जब से इतिहास हमारे पाठ्यक्रम में आया;तभी से ये एक बोझ सा लगने लगा...इतने सरे सन् और तारीखें याद करना बहुत ही मुश्किल लगता था.याद हो भी जाता तो पेपर के समय इधर-उधर हो जाता था.....प्लासी की लडाई में मुगलों के साम्राज्य का सन्....तो कभी अकबर के शासन काल का सन् जहांगीर का शासन काल के सन् से बदल जाता...पता नही वो ये सब देखते तो क्या सोचते????खैर जैसे-तैसे समय निकल रहे थे,कि हमें इतिहास पढाने के लिए एक नए टीचर मिले जो कि हमारी मैडम के रिटायर होने के बाद आए थे.हमें कभी भी ऐसा नही लगा था की हमारा इतिहास को पढने का तरीका बदलेगा...हम तो हमेशा ही उसे रट कर पेपर देने वाला विषय समझते थे ;लेकिन सर के आने पर अचानक ही हमारी इस सोच को जोर का झटका लगा....सर का नाम तो था,"बोरकर सर"(ये उनका सरनेम था)लेकिन इसके बावजूद उन्होंने कभी भी हमें बोर नही किया.पहले ही दिन उन्होंने कुछ इस तरह से इतिहास पढ़ाया कि पता ही नही चला कि हमेशा एक बोझ की तरह लगने वाले इस विषय से कब हमारी दोस्ती हो गयीं?सर पूरे पाठ को पढ़ाया करते थे और उसे छोटे-छोटे प्रश्नों के द्वारा विभाजित करके पूरे पाठ को हमारे विचारों में रमा दिया करते थे.इतनी आसानी से कभी तारीख और सन् याद हो जायेंगे कभी भी नही सोचा था.केवल इतिहास ही नही;बल्कि वे वर्तमान से सम्बंधित ऐसी जानकारी हमारे साथ बांटा करते थे ताकि हमें इतिहास के साथ ही वर्तमान की भी जानकारी रहे .आज ये लगता है कि अगर अद्धापक चाहें तो किसी भी विषय को विद्यार्थियों का मित्र बना सकते हैं.....ये हमारा सौभाग्य ही रहा कि हमें ऐसे कई अद्ध्यापकों का साथ मिला...आगे उनके बारे में भी लिखने कि कोशिश करूंगी.