ढेरों बातों में कई बातें होती हैं लेकिन वो नहीं जो वास्तव में की जानी चाहिए। पहले ऐसी बातों को लिख लेना मेरे लिये एक समाधान की तरह होता था। पर अब तो उन्हें लिखने में भी मुझे उलझन ही रहती है। ख़ैर बात यहाँ शुरू हुई थी माँ के जाने के बाद मिले अकेलेपन से। मैं कई मौक़ों पर ये चाहती रही हूँ कि मुझे अकेले बहुत कुछ करने दिया जाये या कहीं जाने दिया जाए। जो मैं नहीं चाहती थी वो ये कि मैं इस तरह से अकेली होऊँ। पर आपके चाहने या न चाहने से कोई बात नहीं बनती। जो होना होता है वो होता ही है।
ख़ैर ज़िंदगी अब दो भागों में बँट गई है, माँ के साथ की ज़िंदगी और माँ के बाद की ज़िंदगी। कहना ही होगा कि माँ के बाद की ज़िंदगी ने मुझे बहुत से पाठ पढ़ाए। माँ ने मुझे अपने आँचल में इस तरह से समेटा हुआ था कि उनकी छाँव में मैंने भले ही ज़िंदगी के कठोरतम समय को गुज़ारा लेकिन माँ का साथ था तो वो दिन भी किसी परीक्षा से बीत गये। पर माँ के जाने के बाद से ही जीवन एक अलग ही चुनौती का नाम बनता जा रहा है। जब- जब लगता है कि इस चुनौती को मैंने कहीं न कहीं पार पाने योग्य ख़ुद को बना लिया है। तभी एक नयी चुनौती सामने आती है।
बचपन से या कहूँ जब से मुझे याद है तभी से मैं अपने जीवन में आने वाली हर बाधाओं को अपनाकर उन्हें मेहनत से या जूझते हुए पार कर पायी हूँ। पर इन दिनों ये सारी चुनौतियाँ मुझे उलझाती हैं। माँ के जाने के बाद कुछ डेढ़ साल तक तो मुझे यही महसूस हुआ कि चुनौतियों के क़ब्ज़े में मैं पूरी तरह उलझकर रह गई हूँ। पर अब मैंने मौन धरकर चुनौती को पार करने का साहस अपनाया है। मुझे कई बार कुछ कह देने के कारण मुश्किलों का सामना करना होता है। ख़ासतौर से आसपास की चीज़ें न बिगड़ने देने का प्रयास मेरे लिये ढेर सारी मुश्किलें ले आता है।
माँ के जाने के बाद मैं काफ़ी कुछ सीख रही हूँ। बहुत कुछ मैंने अचीव भी किया है। काश ये सब उनके साथ सीधे तौर पर बाँटा जा सकता। कभी - कभी जब उनकी कोई तस्वीर मेरे सामने आती है तो मैं याद करती हूँ कि आख़िर उस दिन क्या था? उस दिन जब ये तस्वीर खींची गई तब माँ क्या कह रही थीं? और भी न जाने क्या- क्या। शायद ये सिलसिला ज़िंदगी भर रहेगा...मेरी कहानी में...
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